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John Baptist

बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब यूरोपीय देशों के धर्म प्रचारक खीस्त की ज्योति का प्रचार करने के लिए विभिन्‍न देशों मेँ यात्राएँ कर रहे थे, तो सन्‌ 1903 में स्वर्गीय फा. फेडीनंड व ब्रदर क्लोद ने अजमेर पहुँचकर, श्रृंगार चँवरी में एक शाला की स्थापना की । अधिकतर विधार्थी आसपास के निवासी थे । सबसे पहले बप्तिस्मा 1905 में दिया गया । तत्पश्चात्‌ 1910 में स्वर्गीय फादर अगुस्टीन परबतपुरा में आकर वहाँ पर धर्मशिक्षा सिखाया करते थे ।

4 अप्रेल 1942 को श्रदेय स्व. फादर साईमन का पदार्पण अजमेर में हुआ और उन्होनें भी श्रृंगार चँवरी में ही, एक छोटे से मकान को अपनी कर्मस्थली बनाया । यहीं से वे अपार चुनौतियों व बाधाओं को पार करते हुए, धर्म प्रचार करते रहे | फादर साईमन का जीवन त्याग व तपस्या से लबालब था । खाने के लिए प्याज रोटी, सोने के लिए कंकरीली व पथरीली जमीन उनका बिछोना था, और तारिका युक्त नीला आकाश ही उनकी चादर थी ।

सन्‌ 1913 में बिशप कोमो ने भट्टा पल्‍ली के प्रथम पाँच स्थानीय बच्चों को द्रढीकरण संस्कार दे कर उन्हें विश्‍वास में और मजबूती प्रदान की, और भट्टा पल्‍ली में खिस्तीय ज्योति का विधिवत्‌ उदगम हुआ । फादर साईमन एक दुरदृष्टा एवं स्वपनदृष्टा थे, उनका सपना एवं इच्छा थी कि उनके अनुयायी उनकी नजरों के सामने ही रहें । उस समय आर्य समाजी एवं अन्य धर्म विरोधी लोग, धर्म प्रचार का समय-समय पर विरोध करते थे तथा खीस्तीयों पर कई प्रकार के अत्याचार करते थे। फादर साईमन के ईसाई धर्म के अनुयायी बनने , समाज विशेष के लोगों ने ईसाई धर्म अपनाने पर कई लोगों को जाति से बहिष्कृत एवं कई प्रकार से तिरस्कृत भी किया गया । उनका उपहास उड़ाया गया, परन्तु प्रभु येसु की असीम कृपा एवं आशिष ने उनके विश्वास को डांवाडोल नहीं होने दिया । वे सभी संगठित रहे ।

इस सब बातों को देखते हुए, तथा अपने अनुयायी शिष्यों के दुःख व पीड़ा को देखते हुए, फादर साईमन ने अप्रैल 1943 में वर्तमान भट्टा मिशन कम्पाउन्ड की लगभग 15 बीघा जमीन खरीदी व मिशन की नींव रखी | 17 मई 1914 को बिशप कोमों ने मिशन को आशिष दी, चार-पांच मकान बनाए व एक गिरजाघर तथा स्कूल का निर्माण कराया । गिरजाघर को ऐसा बनाया गया था, कि उसका आधा भाग बन्द करके शेष भाग मे बच्चों को व अन्य लोगों को धर्म शिक्षा भी दी जाती थी। पास के कमरों में बच्चों की कक्षाएँ लगती थी ।

सर्वप्रथम स्वर्गीय श्री जोहन बैप्टिस्ट, स्वर्गीय श्री लौरेंन्स व स्वर्गीय श्री दाविद व उनकी धर्म पत्नियाँ, क्रमश : स्व. श्रीमति तरेजा व स्व. श्रीमति लूसिया ने इस मिशन कम्पाउन्ड में रहना आरम्भ किया। मास्टर अन्तोन व मास्टर कलोद ने फादर साईमन के धर्म प्रचार में सहयोग किया । बचपन में मैंने देखा, प्रतिदिन फादर साईमन मिस्सा पूजा के उपरान्त साईकल पर धर्म प्रचार हेतु, नसीराबाद , किशनगढ़, ब्यावर आदि स्थान पर जाया करते थे। अपने साथ वे दो रूखी रोटी व प्याज रखते थे। सन्‌ 1919 से 1932 के बीच विश्वासियों की संख्या बढ़ती गई व उनके रहने के लिए और 12 मकानों का निर्माण कराया गया । सन्‌ 1938 से 1942 तक 20 नए मकानों का निर्माण करवा कर विश्वासियों को बसाया गया ।

लोगों को व उनके बच्चों को शिक्षित करने के लिए संत तरेसा प्राथमिक विद्यालय की स्थापना भी की गई जिसे सरकार ने भी मान्यता प्रदान की । फादर साईमन धर्मप्रचार के साथ-साथ लोगों को दवा इत्यादि देकर उनका ईलाज भी करते थे। कम्पाउन्डू के बाहर के लोग भी आकर अपना
उपचार करवाते थे । शिक्षा के विस्तार हेतु दो महान व्यक्तियों का योगदान रहा । एक थे मास्टर दानिएल व मास्टर जोसफ जिन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़कर शिक्षा को अपना क्षेत्र चुना, और पल्‍ली व आसपास के लोगों को शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । 1939 में प्रभुदासी धर्म  बहनों ने यहाँ पर पदार्पण किया तथा शिक्षा का कार्यक्षेत्र चुना, जिनमें धर्मबहन ऐन्सतमी, धर्मबहन हिपोलित व धर्मबहन रफेली का नाम उल्लेखनीय है ।

इस प्रकार धर्मप्रचार करते हुए व अपने विश्वासियों को धर्म में दृढ़ करते हुए दिसम्बर 1943 में श्रदेय फादर साईमन स्वर्ग सिधार गए । उनका अन्तिम उदबोधन था, “मेरे शिष्यों मैंने तुमको उत्तम शिक्षा दी है, तुम उस पर कायम रहना ”। यह अन्तिम संदेश प्रत्येक भट्टावासी के लिए दृढ़ सकल्प व मील का पत्थर साबित हुआ, और भट्टापल्ली अपने विश्वास में आगे और आगे बढ़ती गयी ।